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पश्चाताप / मनीष यादव

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गड़गड़ाती आवाज को सुनते ही
चूल्हे का आँच तेज करती हूँ

अब पकती हुई रोटी के साथ
रिश्तों से जलन की बू आ रही है

तुम्हारे पड़े हर तमाचों पर
मेरा पश्चाताप मुझे सोचने पर विवश करता है –

अपने आत्मसम्मान को कितना निगलोगी?

किसी दिन पिता को बोल देना चाहती हूँ
फोन पर बतियाते समय-

कि मेरी देह के चीरे से अधिक
उसके दिए मन के चीरों से मिला संताप
मुझे हर क्षण व्याकुल करता है

पिता सुनो
अब तुम लौट आओ
मुझे अपने कँधे पर बिठाओ
ले चलो मुझे अपने घर मेरे बचपन की ओर!

क्योंकि मुझे डर है
मेरा आत्मसम्मान
किसी दिन मुझे कुएँ मे ना धकेल दे।
</poem>
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