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<poem>
जब अपने शैफर्स कृत खँजर को तानता हूँ
और अभी धोबी अभी कुत्ता
अभी घाट को बखानता हूँ ।
यह हाल है मेरा
कि ख़याल का घेरा
अभी बिल से बाहर नहीं निकला हूँ
और बढ़ गया है;
मेरे मन में कहीं खुला आसमान नहीं है
मगर सूरज सिर्फ़ निकला ही नहीं है, चढ़ गया है ।
एक राज की बात कि कल रात को
मुझसे ख़ुश हो गया है एक बड़ा आदमी
उसको क्या कमी कि एक बड़ी संस्था है उसके हाथ में
उसने कहा है —
चाहे जब अमेरिका भेज देगा बात की बात में
आजकल बाल की खाल निकालता है जो,
सम्भालता है सो, दुनिया की नकेल
अगर दो एक दिन ठीक मुझसे बन गया यह काम
तो यह बड़ा आदमी मुझे सुई के छेद में देगा ढकेल ।
सुई का छेद बेशक,
रूस और चीन और अमेरिका सुई के छेद हैं
गो इन छेदों में कम-ज़्यादा
कोई छेद ज़रा छोटा है कोई बड़ा है —
कोई कोमल है, कोई कड़ा है
कोई सोने का घेरा है कोई लोहे का
कोई मछली का ढेर है कोई पोहे का ।
मगर हैं सब सुई के छेद
क्या बाइबल क्या वेद, किसी से पूछ लो ।

तो इतना जो कह रहा हूँ अन्धाधुन्ध बह रहा हूँ सो इसलिए कि
अगर इस वक़्त आप न पिए हों
यानी दे सकते हों नेक सलाह
तो बताइए कि रूस की करूँ कि चीन की
कि अमेरिका की चाह
हाँ, ठीक है आपका भी कहना कि चुनना क्या है, जब सब सुई के छेद हैं,
तो थूक लगाकर जहाँ डाल दिया जाऊँ, घुस जाऊँ
और फिर कभी इस छेद तो फिर कभी
उस छेद की ताक में रहा आऊँ ।

इस तरह मेरे मन को आसमान मिल जाएगा
और फिर जो देखी हुई जगहों के और
मिले हुए लोगों के नाम लेखों में गिनाऊँगा
तो कमबख़्त लोगों का घमण्ड हिल जाएगा
कि उनने कुछ देखा-सुना है, पढ़ा है,
उन्हें तब समझ में आएगा कि यह छन्दों में घूमने - घुसने वाला
है आदमी — आदमी है ।
ऐसे आदमियों की हमारे देश में बड़ी कमी है
दौड़ेंगे लोग संस्थाएं सौंपेंगे मेरे हाथ में
और फिर यहाँ का पाँव वहाँ का सिर
इस देश की किताबें उस देश की भाषा
डूलिटल की गप्पें ....

15 दिसम्बर 1952
</poem>
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