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|रचनाकार=जीवनानंद दास
|अनुवादक=मीता दास
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<poem>आग , हवा और पानी : आदिम देवताओं की सर्पिल परिहास से
तुम्हे जो रूप दिया -- वह कितना भयानक और निर्जन सा रूप दिया ,
तुम्हारे संस्पर्श से ही मनुष्यों के रक्त में मिला दिया मक्खियों सी कामनायें |

आग , हवा और पानी के आदिम देवताओं के बंकिम परिहास से
मुझे दिया लिपि , रचना करने का आवेग :
जैसे की मैं ही होऊं आग , हवा और पानी ,
जैसे की मैंने ही तुम्हारा सृजन किया है |

तुम्हारे चेहरे का लावण्य रक्त विहीन , मांस विहीन , कामना विहीन ,
जैसे गहरी रात में --- देवदारु के द्वीप ;
कहीं सुदूर निर्जन में नीलाभ द्वीप हो जैसे ;

स्थूल हाथों से व्यवहार होने पर भी
धरती की मिट्टी में गुम हो रही हो कहीं ;
मैं भी गुम हो रहा हूँ सुदूर द्वीप के नक्षत्रों के छाया तले |

आग , हवा और पानी : देवताओं के बंकिम परिहास से
सौंदर्य के बीज बिखराते चलते हैं इस धरती पर ,
और बिखराते चलते हैं स्वप्नों के बीज
अवाक होकर सोचता रहता हूँ , आज रात कहाँ हो तुम ?
सौन्दर्य जैसी निर्जन देवदारु के द्वीप में या नक्षत्रों की छाया को ही नहीं चीन्हता ------
धरती के इस मनुष्य रूप को ??

स्थूल हाथों से उपयोग होते हुए --- उपयोग --- उपयोग
उपयोग होते हुए उपयोग .........
आग , हवा और पानी : आदिम देवता गण
ठठा कर हंस उठते हैं
" उपयोग - उपयोग होते हुए क्या
सूअर के मांस में तब्दील हो जाता है ? "

मैं भी ठठा कर हँस दिया ------
चारों तरफ अट्टहास की गूँज के भीतर
एक विराट ह्वेल मछली का मृत देह लिए
अंधकार स्फित होकर उभर आया भरे समुद्र में ;
लगा धरती का समस्त सौंदर्य अमेय ह्वेल मछली की
मृत देह की दुर्गन्ध की तरह है ,
जहाँ भी चला जाता हूँ मैं
सारे समुद्र के उल्काओं में
यह कैसा स्वाभाविक सा और क्या स्वाभाविक नहीं है
यही सोचता रहता हूँ मैं ! </poem>
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