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|रचनाकार=जय गोस्वामी
|अनुवादक=जयश्री पुरवार
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<poem>
यहाँ धूप का कोई है नहीं ।
यहाँ कोई नही है अपना
धान का भी ।

इस मैदान मे आने पर ही तुम समझ जाती —
मनुष्य तो नही हूँ मै , वास्तव मे मैं हूँ जल !
उस पतली नहर मे चलकर नदी से आकर
नदी मे ही बह रहा हूँ अविरलब ।
क्यों जानती हो ?

अगर इस स्वच्छ जल को देखकर
तुम्हारा मन हो आए नहाने का !

यहाँ तो कोई नही है।
अगर सारे कपड़े उतारकर
एकबार नहाने को उतर आओ —
इसीलिये !

'''जयश्री पुरवार द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित'''
</poem>
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