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<Poem>
मैं आ रहा हूं
अकेला पाकर अपने को
घबराना नहीं
अब, साहस और संग आ रहा हूं
विचलित न होना

बमुश्किल इस आग को बुझाया है
बमुश्किल इस आग को बुझा पाया हूं
यह आग! पुनः जलाऊंगा और तापूंगा
कभी न सोचना!

धैर्य रखना ही होगा अपने अंदर
इस उमस का अंत स्वतः होगा एक दिन
धैर्य, वर्तमान सिर्फ धैर्य
इस उत्पात का भी विनाश होगा किसी क्षण

उत्सुक नहीं हूँ मैं, क्योंकि
उत्साह-उत्प्रेरणा मर चुकी है
इस आग को बुझाते समय मुझे
उत्तेजित नहीं होना है / तुम्हें भी

यह आग! अभी अभी तो बुझी है।

चल रहे हैं या चलाए जा रहे हैं
इसकी भी सुध नहीं, कहीं जा रहे हैं हम
इस उत्पीड़न का हेतु भी थी

हमारी नाभियों में ही इसकी गंध
आदमी के ही जंगल में ढूंढ़ रहे हैं
आदमी! उफ!! कितना दुर्गंधित हो रहा है आजकल
लगता है सड़ चुका है,
सब को सड़ा रहा है।

आग से ही जलकर कुरूप चेहरे
आग के कारण ही सृजित दुर्गंध
मैं अभी आ रहा हूं
इसी आग को बुझाकर
यह आग अब कभी, कभी भी नहीं जलेगी/ पर
आदमी के इस जंगल में,
आदमी ही सड़कर दुर्गंधित होगा जब
मैं तब आऊंगा- अलग आग का रूप लेकर
आग लगाने!
आज मैं आग बुझाने आया था,
कल फिर मैं
आग लगाने भी आऊंगा!
</Poem>
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