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|रचनाकार=अमीता परशुराम मीता
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<poem>
चल अपने-अपने रस्ते पर अब अपने ही संग चलते हैं 
इक उम्र का हासिल1 प्यास रही दरिया की अजब थी लाचारी
जो उम्र मिली जीने के लिये , सो तुमपे गँवा दी है सारी
अब अपनी-अपनी करते हैं, चल अपने आप से लड़ते हैं
जो ज़ख़्म दिये इक दूजे को , वो दूरी से अब भरते हैं 
हम अपने अपने शानों2 पर , उस दर्द का बोझ उठाये हुए 
जो इक दूजे को हमने दिये, अब तन्हा तन्हा चलते हैं 
लगता है कहीं तो पहुँची हूँ, मंज़िल सी नज़र आती है मगर 
ताहद्दे-नज़र3 है तन्हाई, कैसी है जगह, पहुँची हूँ जहां 
कोई भी नहीं, कुछ भी तो नहीं, हर सिम्त4 नज़र आता है धुयाँ 
घंघोर अँधेरे में दिल को कुछ दूर नज़र आई है शुआ 
ऐ दिल तू संभल, मत और मचल, इस बार नया कुछ करते हैं 
इस बार तो ‘मीता’ अपने लिए अंजान सफ़र को चलते हैं

1. नफ़अ 2. कंधों 3. जहां तक नज़र जाये 4. दिशा
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