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<poem>
इसमें रोने-धोने की क्या बात है ?
हार-जीत तो दुनियाभर के साथ है ।

नपी-तुली सांसें माटी को मिलीं यही क्या कम मिला,
यह अवसर की बात किसी को ख़ुशी, किसी को गम मिला,
तुम तो हो इंसान कि जो कह लेते हो दुख-दर्द को,
चाँद कहाँ तक रोए जिसके आगे-पीछे रात है ।

सूरज रोता अगर कि जैसी मिली बिचारे को जलन,
कब का डूब गया होता अब तक तारों वाला गगन,
लेकिन साहस तो देखो उस चलती-फिरती आग का,
जहाँ पाँव रख देती है मुस्काता वहीं प्रभात है ।

चरणों का इतिहास मंज़िलों से जाकर पूछो ज़रा,
कितने चले गुलाबों पर कितनों का मन प्यासा मरा,
तुम शायद विश्वास करोगे नहीं कि इस संसार में,
छुईमुई के पातों तक पर पतझर का आघात है ।
</poem>
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