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तुम रहो मौन / मोना गुलाटी

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|संग्रह= सोच को दृष्टि दो / मोना गुलाटी
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<poem>
तुम रहो मौन और देखो चुपचाप
उदास लहरों के साथ खिलखिलाते हुए
समुद्र का तुम्हारे चरणों तक आना
और स्तब्ध होकर रुक जाना ।

पूरे वातारवण में शून्य नीलिमा का मौन सम्वाद है; ढुलकता हुआ
कम्पित थरथराता हुआ, पोरों में पिघलाव और लपटों को छूता हुआ
महकता हुआ प्यार है जो तुम्हें
बार-बार कन्धों से उचककर बुलाता है भीतर
आभ्यन्तर में धँसने को, तिलस्मी सीढ़ियों के घुप्प अन्धेरे को प्रकाशित करने
तुम्हें आह्लाद चिन्मय की कोर बनने : तुम्हें
पुकारता है अनाहत नाद
सीमाओं के पार लालिमा में डूबते
तुम :

तुम रहो चुपचाप : मौन और स्तब्ध और देखो
उत्तुंग लहरों का नर्त्तन विभोर हो तुम लौटो
भीतर की यात्रा पर !
प्यार का पहरी तुम्हारी बेबाक़ इंतज़ार में पूरी
की पूरी चाँदनी को आग़ोश में लपेट कर, आकाश की
लालिमा पी रहा है; तुम सहो
इस आवेश को भीतर
डूबते हुए !

तुम करो
प्यार : अपने तटवर्ती किनारे से
एकात्म होकर !

तुम रहो चुपचाप : तटस्थ
मूक पहर में ।
</poem>
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