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|संग्रह=जाने क्या बतियाते पेड़ / जगदीश व्योम
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<poem>
टहनी हिला-हिला
आपस में
जाने क्या बतियाते पेड़

जंगल की सब खुफिया बातें
इनके ज़ेहन में रहतीं
कितनी चीखें घुलीं हवा में
पूरे युग का सच कहतीं
हद से बेहद
अत्याचारों से
जब-तब
अकुलाते पेड़
टहनी हिला-हिला...

हिरन-हिरनियों के
बेसुध दल पर जब
हाँका पड़ जाता
तितर-बितर होकर
जंगल का
सब गणतंत्र बिखर जाता
खुद को विवश समझकर
अपने मन में
बहुत लजाते पेड़
टहनी हिला-हिला...

राजा अहंकार में डूबा
हुमक-हुमक कर चलता है
एक नहीं हो पाये जंगल
इसी जुगत में रहता है
राजा की
दोमुँही सोच पर
अन खाये
अनखाते पेड़
टहनी हिला-हिला...

जंगल में कितनी ताकत है
कौन इन्हें अब समझाए
ये चाहें तो
राजा क्या है
अखिल व्योम भी झुक जाए
मार हवा के टोने
सबको
रहते सदा जगाते पेड़
टहनी हिला-हिला
आपस में
जाने क्या बतियाते पेड़

-डा० जगदीश व्योम
</poem>