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Kavita Kosh से
ये भीड़ जो अजनबी-सी टहलती रहती है महफिलों में
ज़रा पूछे परवाने से के राख हुई शम्मा भला कैसे पिघल रही है
किनारे की दूरी को तरसता रहता है मांझी अक्सर