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कितनी गड़बड़ फैलाते हैं अंधों में कुछ काने लोग।
समझ न पाते ख़ुद, वो भी तो, आते हैं समझाने लोग।

कुर्सी पाने पर सब के सब हो जाते बेगाने लोग,
वक़्त पड़ा तो काम न आए कुछ जाने पहिचाने लोग।

भेदभाव, शोषण, मक्कारी को देकर पंथों का रूप,
सीधे-साधे इंसानों को आ जाते बहकाने लोग।

भू, जल, हवा, गगन, अनल का लालच में करके उपभोग,
मुस्तक़बिल बर्बाद कर रहे, कितने हैं अनजाने लोग।

बहुत कशिश है उस ग़लती में जो क़स्दन हम करते थे,
बचपन की यादों में खोकर लगते हैं शर्माने लोग।

लालच के अंधों को भाता कब सुख-चैन ज़माने का,
अमन-चैन गर टिकता कुछ दिन, आ जाते भड़काने लोग।

प्रकृति के सब नियम क़ायदे हैं जन-जीवन के हक़ में,
नियम तोड़ते हैं जब भी, तब भरते हैं हर्जाने लोग।

-डॅा. वीरेन्द्र कुमार शेखर
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