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Kavita Kosh से
बाजीगर बन गई व्यवस्था
हम सब हुए जमूरे
सपने कैसे होंगे पूरे
चार कदम भर चल पाए थे
पैर लगे थर्राने
क्लांत प्रगति की निरख विवशता
छाया लगी चिढ़ाने
मन के आहत मृगछौने ने
बीते दिवस बिसूरे
सपने कैसे होंगे पूरे...
हमने निज हाथों से युग-
पतवार जिन्हें पकड़ाई
वे शोषक हो गए
हुए हम चिर शोषित तस्र्णाईतरुणाई
`शोषण' दुर्ग हुआ अलबत्ता-
तोड़ो जीर्ण कंगूरे
सपने कैसे होंगे पूरे...
वे तो हैं स्वच्छंद, करेंगे
जो मन में आएगा
सूरज को गाली देंगे
कोई क्या कर पाएगा
दोष व्यक्ति का नहीं
व्यवस्था में छल छिद` घनेरे
सपने कैसे होंगे पूरे...
मिला भेड़ियों को भेड़ों की
अधिरक्षा का ठेका
देश निगलते देखा
स्वाभिमान को बेच उन्हें अब
कैसे नमन करूं करूँ रे सपने कैसे होंगे पूरे...
बदल गए आदर्श
आचरण की बदली परिभाषा
चोर लुटेरे हुए घनेरे
यह अभिशप्त निराशा
बदले युग के वर्तमान को
किस विधि से बदलूँ रेमैं सपने कैसे बदलूं रेहोंगे पूरे...
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