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इतने आरोप न थोपो
 
मन बागी हो जाए
 
मन बागी हो जाए,
 
वैरागी हो जाए
 
इतने आरोप न थोपो...
 यदि बांच बाँच सको तो बांचोबाँचो
मेरे अंतस की पीड़ा
 
जीवन हो गया तरंग रहित
 बस पाषाणी क्रीडाक्रीड़ामन की अनुगूंज गूंज अनुगूँज गूँज बन-बनकर 
जब अकुलाती है
 शब्दों की लहर -लहर लहराकर 
तपन बुझाती है
 
ये चिनगारी फिर से न मचलकर
 
आगी हो जाए
 
मन बागी हो जाए
 
इतने आरोप न थोपो... !!
 
खुद खाते हो पर औरों पर
 
आरोप लगाते हो
 
सिक्कों में तुम ईमान-धरम के
 
संग बिक जाते हो
 
आरोपों की जीवन में जब-जब
 
हद हो जाती है
 परिचय की गांठ गाँठ पिघलकर आंसू आँसू बन जाती है नीरस जीवन मुंह मुँह मोड़ न अब 
बैरागी हो जाए
 
मन बागी हो जाए
 
इतने आरोप न थोपो... !!
 
आरोपों की विपरीत दिशा में
 
चलना मुझे सुहाता
 
सपने में भी है बिना रीढ़ का
 
मीत न मुझको भाता
 
आरोपों का विष पीकर ही तो
 
मीरा घर से निकली
 
लेखनी निराला की आरोपी
 
गरल पान कर मचली
 
ये दग्ध हृदय वेदनापथी का
 
सहभागी हो जाए
 
मन बागी हो जाए
 
इतने आरोप न थोपो ... !!
 
क्यों दिए पंख जब उड़ने पर
 
लगवानी थी पाबंदी
 क्यों रूप वहां वहाँ दे दिया जहां, जहाँ
बस्ती की बस्ती अंधी
 
जो तर्क बुद्धि से दूर बने रह
 करते जीवन -क्रीड़ा 
वे क्या जाने सुकरातों की
 
कैसी होती है पीड़ा
 जीवन्त -बुद्धि वेदनापूत वेदना-पूत की 
अनुरागी हो जाए
 
मन बागी हो जाए
इतने आरोप न थोपो... !!
इतने आरोप न थोपो-डॅा... !!जगदीश व्योम
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