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खड्गहस्त / फणीश्वर नाथ रेणु

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<poem>
दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार !

भूखे तन के, प्यासे मन से
युग-युग से लड़ते जीवन से
ऊब चुके हैं हम बंधन से
जग के तथाकथित संयम से
भीख नहीं, हम माँग रहे हैं अब अपना अधिकार !

श्रम-बल और दिमाग़ खपावें,
तुम भोगो, हम भिक्षा पावें
जाति-धर्म-धन के पचड़े में
प्यार नहीं हम करने पावें
मुँह की रोटी, मन की रानी, छीन बने सरदार !

रक्खो अपना धरम-नियम अब
अर्थशास्त्र, क़ानून ग़लत सब
डोल रही है नींव तुम्हारी
वर्ग हमारा जाग चुका अब
हमें बसाना है फिर से अपना उजड़ा संसार

दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार !
</poem>
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