भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=फणीश्वर नाथ रेणु |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=फणीश्वर नाथ रेणु
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार !
भूखे तन के, प्यासे मन से
युग-युग से लड़ते जीवन से
ऊब चुके हैं हम बंधन से
जग के तथाकथित संयम से
भीख नहीं, हम माँग रहे हैं अब अपना अधिकार !
श्रम-बल और दिमाग़ खपावें,
तुम भोगो, हम भिक्षा पावें
जाति-धर्म-धन के पचड़े में
प्यार नहीं हम करने पावें
मुँह की रोटी, मन की रानी, छीन बने सरदार !
रक्खो अपना धरम-नियम अब
अर्थशास्त्र, क़ानून ग़लत सब
डोल रही है नींव तुम्हारी
वर्ग हमारा जाग चुका अब
हमें बसाना है फिर से अपना उजड़ा संसार
दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार !
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=फणीश्वर नाथ रेणु
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार !
भूखे तन के, प्यासे मन से
युग-युग से लड़ते जीवन से
ऊब चुके हैं हम बंधन से
जग के तथाकथित संयम से
भीख नहीं, हम माँग रहे हैं अब अपना अधिकार !
श्रम-बल और दिमाग़ खपावें,
तुम भोगो, हम भिक्षा पावें
जाति-धर्म-धन के पचड़े में
प्यार नहीं हम करने पावें
मुँह की रोटी, मन की रानी, छीन बने सरदार !
रक्खो अपना धरम-नियम अब
अर्थशास्त्र, क़ानून ग़लत सब
डोल रही है नींव तुम्हारी
वर्ग हमारा जाग चुका अब
हमें बसाना है फिर से अपना उजड़ा संसार
दे दो हमें अन्न मुट्ठी-भर औ’ थोड़ा-सा प्यार !
</poem>