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धुन के रँग हमारे / राम सेंगर

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|संग्रह=बची एक लोहार की / राम सेंगर
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<poem>
ग़ैरत की यह कठिन लड़ाई ,
है यक़ीन , जीतेंगे भाई !

कैसे-कैसे ख़र्चे काटे
कैसे, तिनका-तिनका जोड़ा ।
अपना घर हो, एक ख़्वाब था
कहता किसे काँख का फोड़ा ।
करवट-दर-करवट अभाव थे
रात-रात -भर नींद न आई ।

थे सारे ख़ामोश तज़ुर्बे
दुख-सुख थे स्वाभाविक लय में ।
इस उखाड़ में कैसे ठहरें
रक्षामंत्र न थे संचय में ।
मछली मरी, भूख के रट्टे,
बिना तेल के भूनी - खाई ।

अहसासों से भरा सफ़र था
होने का कुछ अर्थ न जाना ।
नई हवा के मारे थे हम
मर्म रह गया अनपहचाना ।
देख लिया, घर फूँक तमाशा,
जीने की यों शर्त निभाई ।

धरती फटी न परतें उधड़ीं
बातों से न जलजले आए ।
ढपोरशंखों की दुनिया के
बेपर्दा सब नाज़ उठाए ।
धुन के रंग हमारे अपने
रंगों की अपनी गहराई ।
</poem>
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