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{{KKRachna
|रचनाकार=राम सेंगर
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत की व्यथा-कथा / राम सेंगर
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
दिन बदलेंगे
इसी आस में
हाड़-गोड़ दिन दिन-भर तोड़ें ।
हुए संकुचित
बुरी तरह से
आमदनी के सीमित साधन ।
भुस के मोल
मलीदा युग में
जीवन जैसा रहा न जीवन ।
लूट लिया
मण्डी ने सब कुछ
खाली गुल्लक को क्या फोड़ें ।
स्थितिरक्षा की
भेंट चढ़ गई
गर्मी खिंची लगन की सारी ।
उड़ने लगे
जोगड़े ज़्यादा
चूर-चूर छवि देख हमारी ।
आग न बुझी
अभी शिद्दत की
छोर तसल्ली का क्यों छोड़ें ।
मामूली-सी
कुव्वत लेकर
डटे हुए अन्धड़ के आगे ।
दुर्गति की
ताक़त के बल पर
पाँव जमा लेते हतभागे ।
ले अमर्ष में
लक्ष्यचेतना
कोशिश है, पथ का रुख मोड़ें ।
</poem>
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|संग्रह=रेत की व्यथा-कथा / राम सेंगर
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दिन बदलेंगे
इसी आस में
हाड़-गोड़ दिन दिन-भर तोड़ें ।
हुए संकुचित
बुरी तरह से
आमदनी के सीमित साधन ।
भुस के मोल
मलीदा युग में
जीवन जैसा रहा न जीवन ।
लूट लिया
मण्डी ने सब कुछ
खाली गुल्लक को क्या फोड़ें ।
स्थितिरक्षा की
भेंट चढ़ गई
गर्मी खिंची लगन की सारी ।
उड़ने लगे
जोगड़े ज़्यादा
चूर-चूर छवि देख हमारी ।
आग न बुझी
अभी शिद्दत की
छोर तसल्ली का क्यों छोड़ें ।
मामूली-सी
कुव्वत लेकर
डटे हुए अन्धड़ के आगे ।
दुर्गति की
ताक़त के बल पर
पाँव जमा लेते हतभागे ।
ले अमर्ष में
लक्ष्यचेतना
कोशिश है, पथ का रुख मोड़ें ।
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