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यहाँ से / हरीशचन्द्र पाण्डे

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यहाँ से

जो भी गया
जंगल-गाड़-गधेरे-धुनें सब लेता गया साथ
पर यहाँ ज़रा भी कम नहीं हुआ कुछ
पूरे में से पूरा निकलकर पूरा बचा रहा

जो आया
एक भी फूल गाँव जवार के जूड़े में नहीं खोंसने दिया उसने
एक भी फल ज़मीन का गुरुत्वाकर्षण नहीं पा सका
जो भी आया थनों के लिए आया मुख के लिए कोई नहीं

भाषा-बोली
संस्कृति-डोली के अग्रिम कहारों में थी
वह आठवीं अनुसूची के दरवाज़े को पीट रही है
देर से...।
</poem>
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