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<poem>
तुमने भारत को पोस्टरों में देखा है
एक साँवली औरत
घने जूड़े में
बड़ा - सा फूल
खोंस रही है
एक देसी कमल पोखर से बच्चे की तरह
उझक रहा है
एक आदमी गाँव को बोझ लिए मचकता
जा रहा है ।
वहाँ कभी
तुमने भारत देखा है
उसकी खाकी मिट्टी
पथरीले उठान
रेत के लहरियोंदार ढूह
चट्टानी ढलान
वहां तुम्हें जिस्म पर पड़ी सिकुड़नें दिखाई नहीं देंगी
पीछे दूर तक नीला आसमान
छिदरे - छिदरे बबूलों के वन दिखाई नहीं देंगे
वह एक जवान मछुआरिन का जिस्म है
उसकी धोती का काला किनारा और लम्बे बाल
उसके नितम्बों तक के ढलान की बन्दिश सुडौल है
क्या तुमने भारत वहाँ देखा है
फ़सलों को तराशती बाहें वहांँ देखी हैं
फटे टाटों पर उकडू बैठे नालबन्दों को कील ठोंकते
देखा है
क्या वे खलिहान में नाज मीड़ते खुर हैं
क्या तालाब पार करतीं फ़ौजियों (?) की लड़कियाँ
उसमें अंकित हैं
क्या उसके नीचे हमारे पुरखों के नाम लिखे हैं
यह एक मजूर की औरत उधर (?) जवानी का
इशारा कर रही है
जहाँ गहरे हरे रंग के कुछ तीर गाड़ दिए हैं
जहाँ झोपड़ियों के अन्धेरे-अन्धेरे मुँह चमकते हैं
क्या तुमने भारत पोस्टरों में देखा है ?
'''विजेन्द्र की इस कविता पर कवि राम सेंगर की एक टिप्पणी'''
यथार्थवाद के अध्ययन से विजेन्द्र को चीज़ों को देखने और जानने का जो नया नज़रिया हासिल हुआ, उससे उनकी पिछली सदी के सातवें दशक में रची गई कविताओं में से '''रेलवे पोस्टर''' सरीखी कविता निकलकर आई। इससे मालूम होता है कि ताक़त पाकर व्यवस्थाएँ किस तरह से असत्य से सत्य को स्थानापन्न करती रहती है। जैसे कभी सुमित्रानन्दन पन्त ने ताजमहल को देखकर "हाय मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन / जब विषण्ण निर्जीव पड़ा हो जन का जीवन ।" कह दिया था और साहिर लुधियानवी जैसे बड़े शायर ने भी ताजमहल को ग़रीबों की मुहब्बत के मज़ाक के रूप में देखा था। लेकिन इससे जीवन के ऐतिहासिक प्रवाह की अनदेखी भी हुई। यह व्यक्ति की सामन्ती मानसिकता के विरुद्ध चेतना तो अवश्य थी, किन्तु इसमें इतिहास-प्रवाह का क्रम गायब था। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो सामन्तकालीन कलाओं का यही सच था जो वास्तुकला के रूप में सामने आया। वह कोई आधुनिक लोकतान्त्रिक युग नहीं था कि एक निजी काम के लिए वास्तुकला का उपयोग इस तरह से किया जाय। यद्यपि आज भी लोकतान्त्रिक तानाशाह ऐसा कुछ दूसरी तरह से करते हुए देखे जा सकते हैं। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इसके बावजूद सामन्तकालीन सत्ता ने सामन्ती कला को उच्च स्तरों तक पहुँचाया है। ताजमहल उसी का प्रतीक और प्रमाण है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ऐसा करना हर युग में सही है। इसका उत्तर होगा — नहीं। आधुनिक लोकतान्त्रिक युग सत्य पर पड़े हुए ऐसे बहुत से आवरणों को हटाने और बताने का काम करता है। विजेन्द्र की ’रेलवे पोस्टर’ कविता भी इसी सच को उद्घाटित करने के उद्देश्य से लिखी गई है, लेकिन यहाँ कवि केवल सत्य के उद्घाटन करने तक ही सीमित नहीं रहा है, उसने सत्य के साथ वर्तमान में उस श्रम - सौन्दर्य की प्रतिष्ठापना भी की है, जिसके ऊपर लोकतान्त्रिक पूँजीवादी व्यवस्था भी आवरण डालती है। विजेन्द्र लिखते हैं कि —
वहाँ कभी
तुमने भारत देखा है
उसकी ख़ाकी मिट्टी
पथरीले उठान
रेत के लहरियोंदार ढूह
चट्टानी ढलान
वहाँ तुम्हें जिस्म पर पड़ी सिकुड़नें दिखाई नहीं देंगी
पीछे दूर तक नीला आसमान
छिदरे-छिदरे बबूलों के वन दिखाई नहीं देंगे
यह सचाई है भारतीय आम जीवन की, जबकि पूँजीवादी व्यवस्था के संचालक उस हक़ीक़त को छिपाते हुए उसे ग्लैमराइज करके दिखलाते हैं कि देखिए, कितना विकास हो गया है, जिसमें एक साँवली औरत जूड़े में फूल खोंसती दिखलाई गई है, जबकि वास्तविकता में ऐसा नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि ऐसी साँवली श्रमशीला औरतों का जिस्म झुर्रियों और सिकुड़नों से भरा रहता है, लेकिन पोस्टरों से वह वास्तविकता ग़ायब मिलेगी। इस तरह से पूँजीवादी व्यवस्था इस विज्ञापनी बाज़ारू दुनिया में सच को छिपाने, उस पर आवरण डालते रहने का काम करती है । हमने देखा है कि जब विकसित और शक्तिशाली देश का कोई राष्ट्राध्यक्ष भारत में आमन्त्रित किया जाता है, तो स्वयं सत्ता द्वारा ग़रीबों की स्लम बस्तियों को पर्दों से आवृत करके सरेआम सच को ढका जाता है। कवि ने कहा है कि इन सरकारी पोस्टरों में भारत की सच्चाई नहीं दिखेगी। यहाँ दिखेगा एक जवान मछुआरिन का जिस्म। मतलब यह है कि वहाँ सच्चाई नहीं है।वह सवाल करता हुआ अपने पाठक से पूछता है —
वह एक जवान मछुआरिन का जिस्म है
उसकी धोती का काला किनारा और लम्बे बाल
उसके नितम्बों तक के ढलान की बन्दिश सुडौल है
क्या तुमने भारत वहाँ देखा है
फ़सलों को तराशती बाहें वहाँ देखी हैं
फटे टाटों पर उकडू बैठे नालबन्दों को कील ठोंकते
देखा है
पूरी कविता में इसी तरह के झूठे सच के प्रमाण देते हुए कवि श्रमसंलग्न जीवन की वास्तविकता के साथ यह भी व्यंजित करता है कि असल भारत की असलियत पोस्टरों से ग़ायब है। विजेन्द्र उस स्थानीयता को भी कविता में रचते हैं, जो दृश्य के स्तर पर स्थानीय अवश्य होती है, किन्तु दृष्टि के स्तर पर उसके सरोकार वैश्विक होते हैं। वि्जेन्द्र की स्थानीयता का सम्बन्ध उत्तर आधुनिक फ्रांसीसी विचारक फ़्रान्कोइस ल्योतार द्वारा प्रस्तावित स्थानीयता से नहीं है, जो इतिहास और समाज में सारतत्व खोजने वालों को निरर्थक मानता है। जो यह बतलाता है कि अब महाख्यानों का समय बीत गया, यह समय सत्य की ख़ोज में लगे रहने का नहीं रहा है। इसमें सब कुछ पूँजी के नियन्त्रण में आ चुका है ।
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तुमने भारत को पोस्टरों में देखा है
एक साँवली औरत
घने जूड़े में
बड़ा - सा फूल
खोंस रही है
एक देसी कमल पोखर से बच्चे की तरह
उझक रहा है
एक आदमी गाँव को बोझ लिए मचकता
जा रहा है ।
वहाँ कभी
तुमने भारत देखा है
उसकी खाकी मिट्टी
पथरीले उठान
रेत के लहरियोंदार ढूह
चट्टानी ढलान
वहां तुम्हें जिस्म पर पड़ी सिकुड़नें दिखाई नहीं देंगी
पीछे दूर तक नीला आसमान
छिदरे - छिदरे बबूलों के वन दिखाई नहीं देंगे
वह एक जवान मछुआरिन का जिस्म है
उसकी धोती का काला किनारा और लम्बे बाल
उसके नितम्बों तक के ढलान की बन्दिश सुडौल है
क्या तुमने भारत वहाँ देखा है
फ़सलों को तराशती बाहें वहांँ देखी हैं
फटे टाटों पर उकडू बैठे नालबन्दों को कील ठोंकते
देखा है
क्या वे खलिहान में नाज मीड़ते खुर हैं
क्या तालाब पार करतीं फ़ौजियों (?) की लड़कियाँ
उसमें अंकित हैं
क्या उसके नीचे हमारे पुरखों के नाम लिखे हैं
यह एक मजूर की औरत उधर (?) जवानी का
इशारा कर रही है
जहाँ गहरे हरे रंग के कुछ तीर गाड़ दिए हैं
जहाँ झोपड़ियों के अन्धेरे-अन्धेरे मुँह चमकते हैं
क्या तुमने भारत पोस्टरों में देखा है ?
'''विजेन्द्र की इस कविता पर कवि राम सेंगर की एक टिप्पणी'''
यथार्थवाद के अध्ययन से विजेन्द्र को चीज़ों को देखने और जानने का जो नया नज़रिया हासिल हुआ, उससे उनकी पिछली सदी के सातवें दशक में रची गई कविताओं में से '''रेलवे पोस्टर''' सरीखी कविता निकलकर आई। इससे मालूम होता है कि ताक़त पाकर व्यवस्थाएँ किस तरह से असत्य से सत्य को स्थानापन्न करती रहती है। जैसे कभी सुमित्रानन्दन पन्त ने ताजमहल को देखकर "हाय मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन / जब विषण्ण निर्जीव पड़ा हो जन का जीवन ।" कह दिया था और साहिर लुधियानवी जैसे बड़े शायर ने भी ताजमहल को ग़रीबों की मुहब्बत के मज़ाक के रूप में देखा था। लेकिन इससे जीवन के ऐतिहासिक प्रवाह की अनदेखी भी हुई। यह व्यक्ति की सामन्ती मानसिकता के विरुद्ध चेतना तो अवश्य थी, किन्तु इसमें इतिहास-प्रवाह का क्रम गायब था। ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो सामन्तकालीन कलाओं का यही सच था जो वास्तुकला के रूप में सामने आया। वह कोई आधुनिक लोकतान्त्रिक युग नहीं था कि एक निजी काम के लिए वास्तुकला का उपयोग इस तरह से किया जाय। यद्यपि आज भी लोकतान्त्रिक तानाशाह ऐसा कुछ दूसरी तरह से करते हुए देखे जा सकते हैं। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इसके बावजूद सामन्तकालीन सत्ता ने सामन्ती कला को उच्च स्तरों तक पहुँचाया है। ताजमहल उसी का प्रतीक और प्रमाण है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ऐसा करना हर युग में सही है। इसका उत्तर होगा — नहीं। आधुनिक लोकतान्त्रिक युग सत्य पर पड़े हुए ऐसे बहुत से आवरणों को हटाने और बताने का काम करता है। विजेन्द्र की ’रेलवे पोस्टर’ कविता भी इसी सच को उद्घाटित करने के उद्देश्य से लिखी गई है, लेकिन यहाँ कवि केवल सत्य के उद्घाटन करने तक ही सीमित नहीं रहा है, उसने सत्य के साथ वर्तमान में उस श्रम - सौन्दर्य की प्रतिष्ठापना भी की है, जिसके ऊपर लोकतान्त्रिक पूँजीवादी व्यवस्था भी आवरण डालती है। विजेन्द्र लिखते हैं कि —
वहाँ कभी
तुमने भारत देखा है
उसकी ख़ाकी मिट्टी
पथरीले उठान
रेत के लहरियोंदार ढूह
चट्टानी ढलान
वहाँ तुम्हें जिस्म पर पड़ी सिकुड़नें दिखाई नहीं देंगी
पीछे दूर तक नीला आसमान
छिदरे-छिदरे बबूलों के वन दिखाई नहीं देंगे
यह सचाई है भारतीय आम जीवन की, जबकि पूँजीवादी व्यवस्था के संचालक उस हक़ीक़त को छिपाते हुए उसे ग्लैमराइज करके दिखलाते हैं कि देखिए, कितना विकास हो गया है, जिसमें एक साँवली औरत जूड़े में फूल खोंसती दिखलाई गई है, जबकि वास्तविकता में ऐसा नहीं है। वास्तविकता तो यह है कि ऐसी साँवली श्रमशीला औरतों का जिस्म झुर्रियों और सिकुड़नों से भरा रहता है, लेकिन पोस्टरों से वह वास्तविकता ग़ायब मिलेगी। इस तरह से पूँजीवादी व्यवस्था इस विज्ञापनी बाज़ारू दुनिया में सच को छिपाने, उस पर आवरण डालते रहने का काम करती है । हमने देखा है कि जब विकसित और शक्तिशाली देश का कोई राष्ट्राध्यक्ष भारत में आमन्त्रित किया जाता है, तो स्वयं सत्ता द्वारा ग़रीबों की स्लम बस्तियों को पर्दों से आवृत करके सरेआम सच को ढका जाता है। कवि ने कहा है कि इन सरकारी पोस्टरों में भारत की सच्चाई नहीं दिखेगी। यहाँ दिखेगा एक जवान मछुआरिन का जिस्म। मतलब यह है कि वहाँ सच्चाई नहीं है।वह सवाल करता हुआ अपने पाठक से पूछता है —
वह एक जवान मछुआरिन का जिस्म है
उसकी धोती का काला किनारा और लम्बे बाल
उसके नितम्बों तक के ढलान की बन्दिश सुडौल है
क्या तुमने भारत वहाँ देखा है
फ़सलों को तराशती बाहें वहाँ देखी हैं
फटे टाटों पर उकडू बैठे नालबन्दों को कील ठोंकते
देखा है
पूरी कविता में इसी तरह के झूठे सच के प्रमाण देते हुए कवि श्रमसंलग्न जीवन की वास्तविकता के साथ यह भी व्यंजित करता है कि असल भारत की असलियत पोस्टरों से ग़ायब है। विजेन्द्र उस स्थानीयता को भी कविता में रचते हैं, जो दृश्य के स्तर पर स्थानीय अवश्य होती है, किन्तु दृष्टि के स्तर पर उसके सरोकार वैश्विक होते हैं। वि्जेन्द्र की स्थानीयता का सम्बन्ध उत्तर आधुनिक फ्रांसीसी विचारक फ़्रान्कोइस ल्योतार द्वारा प्रस्तावित स्थानीयता से नहीं है, जो इतिहास और समाज में सारतत्व खोजने वालों को निरर्थक मानता है। जो यह बतलाता है कि अब महाख्यानों का समय बीत गया, यह समय सत्य की ख़ोज में लगे रहने का नहीं रहा है। इसमें सब कुछ पूँजी के नियन्त्रण में आ चुका है ।
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