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|संग्रह=नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा / केशव तिवारी
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<poem>
कितने दिन बाद सद्यः प्रसवा गाय को
अपने बछड़े शिशु को चाटते - चोकड़ते
देखा - सुना

दूध से औराते तने थन

कितने दिन बाद देर तक सुनता रहा
बकरियों का अपने परिवार के साथ
सामूहिक स्वर

जम के झऊणी दरवाज़े की नीम की
मोटाई डार

कितने दिन बाद लगभग आँख खो चुकी
पूर्वहिन आजी ने टोया मेरा चेहरा

हाथ पकड़ पूछा कहाँ रह्या एतने दिन
दुल्हिन आय अहैं की नाहीं

दिखा विपत्ति का खूँटा जस का तस
दरवाज़ों पर गड़ा

ओझा दिखे सोखा
काली के थान पर
अभूवाती स्त्रियाँ

घाम तापते
पण्डा दिखे, परधान दिखे

जिसे नहीं देखना चाहता था, वह भी दिखा
कितना दिखा - अनदिखा
कहा - अनकहा

कितने बाद मथुरा काका ने
पिता के नाम से देख के पुकारा मुझे

कितने दिन बाद दिखे
वही तकलीफ़ भरे चेहरे

जो कुछ ख़ास बोले नहीं, हाल लिया
और बुझे क़दमों से चले गए
</poem>
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