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सारस / रसूल हम्ज़ातव

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कभी-कभी लगता है मुझको वे सैनिक
रक्तिम युद्ध-भूमि सेलौट से लौट न जो आए,
नहीं मरे वे वहाँ, बने मानो सारस
उड़े गगन में, श्वेत पंख सब फैलाए ।
धुन्ध-कुहासे में भी, जब दिन ढलता है,
उस तिकोण में उनके ज़रा जगह ख़ाली
वह तो मेरे लिए, मुझे यह लगता है ।
वह दिन आएगा, मैं सारस-दल के संग
हलके नील अन्धेरे में उड़ जाऊँगा,
उन्हें सारसों की ही भाँति पुकारूँगा
छोड़ जिन्हें मैं पृथ्वी पर जाऊँगा ।
 <poem>'''रूसी भाषा से अनुवाद : मदनलाल मधु'''
</poem>
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