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Kavita Kosh से
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है मरना डूब के, मेरा मुकद्दर, भूल जाता हूँ।
तेरी आँखों में सागर है ये अकसर अक्सर भूल जाता हूँ।
ये दफ़्तर जादुई है या मेरी कुर्सी नशीली है,
मैं हूँ जनता का एक अदना सा नौकर भूल जाता हूँ।
हमारे प्यार में इतना तो नश्शा अब भी बाकी बाक़ी है,पहुँचकर घर के दरवाजे दरवाज़े पे दफ़्तर भूल जाता हूँ।
तुझे भी भूल जाऊँ ऐ ख़ुदा तो माफ़ कर देना,
मैं सब कुछ तोतली आवाज़ सुनकर भूल जाता हूँ।
न जीता हूँ , न मरता हूँ , तेरी आदत लगी ऐसी, दवा हो , ज़हर हो दोनों मैं लाकर भूल जाता हूँ।
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