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<poem>
कृषि-भक्षी कीटों की बिकतीं
अब कई दवाएँ हैं
कृषकों को जाबिर भक्षक से
पर कौन बचाएगा ?

खेतों-खलिहानों पर कसते
निर्दयी शिकंजे हैं
शातिर बाज़ीगर के कैसे
ये पैने पंजे हैं
नई कोंपलों के सपनों को
सल्फ़ास खिलाएगा ।

मालूम नहीं क्या कितनी ताक़त
है लाठी-गोली में
जंगल-परबत छीन-छीन कर
भरने हैं झोली में
सस्ती मज़दूरी की ख़ातिर
गिरवी जोत धराएगा ।

नफ़रत की ज़हरीली पुड़िया
बाँटी बस्ती-बस्ती
इसीलिए तो सुलभ हुई है
यह बेफ़िक्री, मस्ती
यह बहेलिया मेंड़-मेंड़ पर
आ जाल बिछाएगा ।
</poem>
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