भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatGhazal}}
<poem>
जुड़ो ज़मीं से कहते थे जो वो ख़ुद नभ के दास हो गये।बने हैं।आम आदमी के हित की झूठी चिन्ता झूटी फ़िक्र जिन्हें थी जिनको, ख़ास हो गये ।बने हैं।
सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय,
आरक्षण पाने की ख़ातिर सबसे लम्बी घास हो गये।बने हैं।
तन में मन में पड़ीं पड़ी दरारें, टपक रहा आँखों से पानी,जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये।बने हैं।
बात शुरू की थी अच्छे से सबने ख़ूब सराहा भी था,
लेकिन सबकुछ कह देने के चक्कर में बकवास हो गये।बने हैं।
ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो,
रिश्ते, नाते और दोस्ती , संगी-साथी सबके सब आभास हो गये। बने हैं।
शब्द पुराने, भाव पुराने रहे ठूँसते पिरोते हर मिसरे में,कायम क़ायम रहे रवायत इस चक्कर में हम इतिहास हो गये।बने हैं।
</poem>