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Kavita Kosh से
तो पानी आज तक चुपचाप यूँ ठहरा नहीं होता।
महक उठती हवा सारी फ़िजा फ़िज़ा रंगीन हो जाती,
गुलाबों पर जो काँटों का सदा पहरा नहीं होता।
नदी खुद ख़ुद ही स्वयं को शुद्ध कर लेती अगर पानी, उन्हीं दो -चार बाँधों के यहाँ ठहरा नहीं होता।
कभी तो चीख मजलूमों मज़लूमों की उस तक भी पहुँचती गर,
हमारे देश का ये हुक्मराँ बहरा नहीं होता।
न होते हाथ बुनकर के न रँगरेजों रंगरेज़ों के रँग रंग होते,
तो खादी का तिरंगा देश में फहरा नहीं होता।
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