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<poem>
हस्ती किसी शय की यहाँ छोटी न बड़ी है
क़तरों पे ही बुनियाद समंदर की खड़ी है

हम शहर में हर रोज़ की बारिश से दुखी हैं
सहराओं की क़िस्मत में वही धूप कड़ी है

बच्चे ने बड़ी ज़िद से ख़रीदी थी जो गुड़िया
बेहाल सी घर के किसी कोने में पड़ी है

आँखों में कोई ख़्वाब न पलकों पे सितारे
शायद ये मेरे सुर्ख़रू होने की घड़ी है

हर बार पलट आते हैं रस्ते के मुसाफ़िर
शायद कोई दीवार सरे-राह खड़ी है

फुटपाथ से जा बैठे हो सोने के महल में
हाथों में तुम्हारे कोई जादू की छड़ी है

मैं राज़ की ये बात 'ज़िया' किस को बताऊं
मुझसे मेरी परछाईं कई बार लड़ी है।
</poem>
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