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<poem>
धूप के प्रहरी निरन्तर कर रहे पीछा
क्रूर मौसम से कभी कुछ कह नहीं सकते
जाएँ, तो हम कहाँ जाएँ ?

श्वास के अनुबन्ध को
कैसे, भला, तोड़ें ?
कल्पना से कब तलक
सम्बन्ध हम जोड़ें ?
क्षणों के ही बोझ को हम सह नहीं सकते
पहर के इस बोझ को कैसे उठाएँ ?

अधर बंजर हो गए,
पपड़ी जमी है,
वेदना से नयन में
फिर भी नमी है,
बाँध से प्रतिबद्ध आँसू बह नहीं सकते,
फिर कसकते स्वरों को कैसे जगाएँ ?

थरथरा रहे हैं
पीपल पात से,
सलवटें मिटती
नहीं हैं गात से
बन गए खण्डहर मगर हम ढह नहीं सकते,
खोखली दीवार को कैसे गिराएँ ?

'''रचनाकाल : 1974'''
</poem>
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