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|संग्रह=बची एक लोहार की / राम सेंगर
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<poem>
अन्तिम छोर तलक धकियाया
नीचे गहरी खाई ।
पलटे तो आलम बदल गया
टाँग हाथ में आई ।

ब्रह्मफाँस -सी जकड़
अकड़ की रग-रग ढीली-ढीली ।
कसमस करे, हँसे पाखण्डी
कर टक नीली-पीली ।
दमित-रुद्ध में ताक़त उमड़ी
लटकी देह उठाई ।

पलटवार का तर्क़ खोलकर
पीड़ित ने दे मारा ।
वर्गयुद्ध का खेल
बन गया अद्भुत एक नज़ारा ।
औचक-भौचक, भर यक़ीन से
देखें लोग-लुगाई ।
</poem>
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