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<poem>
टूट गए पुल सारे ।
कितने हुए पहुँच के बाहर
भाई बन्धु हमारे ।

ग़लतफ़हमियों के पोषण की
सनकें थीं जाने कब-कब की ।
हैसियतों की
ढोंगिल रौ थी
कहासुनी थी बेमतलब की ।
सोचा था, संगति के बूते
एक नया इतिहास रचेंगे
समझा कौन इशारे ।

जीने का संघर्ष बच रहे
यह ज़िल्लत लेकर क्या मरना ।
निकल चुके
सपने से बाहर
है ख़ुमार के पार उतरना ।
कसौटियों का सच जो भी हो
कोई नहीं तर्क से ऊपर
कोरे भरम उतारे ।

ऊपर उठने की कोशिश थी
विजयी मुद्रा धरी न ओढ़ी ।
हमें नहीं था
पता कि हमने
कितनी सामाजिकता तोड़ी ।
कटे कि काटे गए समय से
व्यवहारों में गाँठ पड़ गई
खोल- खोल कर हारे ।

टूट गए पुल सारे ।
</poem>
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