भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विनय सौरभ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=विनय सौरभ
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
इस इलाक़े में साल भर में लगने वाले
एक दो मेलों में ज़रूर आते
सांझ ढले हमारे यहाँ रुकते
तय होता था उनका आना
अपना देहातीपन वे पहचानते थे
और संकोच से भरे होते थे

चौकी पर, कुर्सी पर
सिमटकर बैठते, बहुत कम बोलते
साथ आए बच्चे कौतूहल से हर चीज़ को देखते
छत पर चढ़ते-उतरते, सीढ़ियों पर फिसलते

रात को छत पर या कहीं भी
गुड़ी-मुड़ी होकर सो जाते थे एक चादर में
और मुँह अन्धेरे बिना चाय-पानी
माँ का पाँव छूते यह कहते हुए निकल जाते
कि फिर आएँगे

वे अपने पाँवों पर भरोसा करने वाले लोग थे
दो-चार कोस पैदल आदतन चलने वाले

सूरज के पहाड़ के ऊपर उठने तक
वे बहुत दूर निकल जाते थे
उन्हें खेतों में जाना होता था
वे किसान थे
छोटे-मोटे धन्धे में लगे लोग थे

अपने गाय बैलों की ख़ातिर ज़ल्दी घर लौटते
जहाँ भी होते, जिस गाँव जाते

अब नहीं आते दूर-दराज़ के ये सगे-सम्बन्धी
मेला देखने के बाद
बरसों पहले की उनकी आने-जाने की स्मृतियाँ भर बची हैं अब

मेले आज भी हैं
पहले से ज़्यादा भीड़ लिए
ज़्यादा चमकीले और नए शोर से भरे हुए

क्या पता वे आते भी हों
और हमसे बिना मिले ही लौट जाते हों !

वे आएँगे ही, इस भरोसे से रसोई में अलग से कोई जतन नहीं होता
पीतल की बड़ी हाँड़ी में भात बने कई बरस हुए

पात में इन सम्बन्धियों के साथ बैठकर
अपने ही आँगन में खाए बहुत साल बीते हैं ।
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,693
edits