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{{KKRachna
|रचनाकार=राम सेंगर
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
लोग सुन रहे हैं
सुर्र-सुर्र फ़्लिटगन की
उठ-उठ कर रात-भर
हमने कितने मच्छर मारे ।
द्वार बन्द बीच का-
इधर तख़त,उधर तख़त
इस पर कवि
उस पर आलोचक ।
काहे का कनसुआ
दोनों ही मगनमना
गतिविधियाँ
दोनों की रोचक ।
खटपट अपनी,
उनकी आसंदी की चरमर,
बाधित रचनाक्षण के आस्वादों का विनिमय
बोल-भाव
क्या करें बेचारे ।
लोग सुन रहे हैं
सुर्र-सुर्र फ्लिटगन की
उठ-उठ कर रात-भर
हमने कितने मच्छर मारे ।
</poem>
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लोग सुन रहे हैं
सुर्र-सुर्र फ़्लिटगन की
उठ-उठ कर रात-भर
हमने कितने मच्छर मारे ।
द्वार बन्द बीच का-
इधर तख़त,उधर तख़त
इस पर कवि
उस पर आलोचक ।
काहे का कनसुआ
दोनों ही मगनमना
गतिविधियाँ
दोनों की रोचक ।
खटपट अपनी,
उनकी आसंदी की चरमर,
बाधित रचनाक्षण के आस्वादों का विनिमय
बोल-भाव
क्या करें बेचारे ।
लोग सुन रहे हैं
सुर्र-सुर्र फ्लिटगन की
उठ-उठ कर रात-भर
हमने कितने मच्छर मारे ।
</poem>