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|रचनाकार=कमलेश
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
ड्योढ़ी के सामने मौलिश्री का पेड़ था।
तिथियों पर साँझ हुए,
थाल लिए
माँ आती,
मन ही मन कुछ बुदबुदाती,
दीये जलाती ।
एक मनौती बेटे के लिए —
एक मनौती बेटी के लिए —
माँ के मन में
प्रार्थनाएँ ही प्रार्थनाएँ थीं ।
दीये जलते रहते देर रात तक ...
सुबह थाल भरा होता था
मौलिश्री के फूलों से ।
माँ एक बार देखती बेटे को —
फिर एक बार देखती बेटी को —
दोनों पूछते — क्या है माँ !
गुमसुम माँ रसोई में आ जाती !
क्या होता है माँ का माँ होना !
</poem>
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ड्योढ़ी के सामने मौलिश्री का पेड़ था।
तिथियों पर साँझ हुए,
थाल लिए
माँ आती,
मन ही मन कुछ बुदबुदाती,
दीये जलाती ।
एक मनौती बेटे के लिए —
एक मनौती बेटी के लिए —
माँ के मन में
प्रार्थनाएँ ही प्रार्थनाएँ थीं ।
दीये जलते रहते देर रात तक ...
सुबह थाल भरा होता था
मौलिश्री के फूलों से ।
माँ एक बार देखती बेटे को —
फिर एक बार देखती बेटी को —
दोनों पूछते — क्या है माँ !
गुमसुम माँ रसोई में आ जाती !
क्या होता है माँ का माँ होना !
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