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दुख यह / कमलेश

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दुख यह अपना ही यदि होता
इन्द्रिय तन्त्र सहन कर लेता ।
गढ़कर क़िस्से नगर-नगर में
भीख माँग झोली भर लेता ।

दुख ही जब दो का हो जाए
दोनों हों जब पास-पड़ोसी....
बस जाएँ फिर उसी नगर में
जहाँ भीख से भर दे झोली ।

क़िस्से उसी लोक के गाकर
राह काट लें दो हमजोली ।
</poem>
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