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मैं बड़ा हो रहा था ।
पाठशाला जाने लगा था ।

मैं सौरी की ओर
देखता था बार-बार,
माँ कई दिनों से वहीं थी,
खाट पर लेटी ।
पैंताने खड़ी थी नायन ।

मैं उस कोठरी की ओर
देखता था बार-बार
मालूम था मुझे
एक भाई या बहिन....
</poem>
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