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{{KKRachna
|रचनाकार=सुनील कुमार शर्मा
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
धुआँ कालिख
छोड़ जाता है,
गुजरता हुआ
आंखों में अपनी मुलाकात
के निशां छोड़ जाता है
नजर धुंधला जाता है
धुंधलके में हक
किसी का कोई दबा जाता है
बाहर ही नहीं
अंतस में भी भरा होता है, धुआँ
मारती है जिसमें
कुलांचें
ढेर सारी नाकारात्मकता
</poem>
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|रचनाकार=सुनील कुमार शर्मा
|अनुवादक=
|संग्रह=
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धुआँ कालिख
छोड़ जाता है,
गुजरता हुआ
आंखों में अपनी मुलाकात
के निशां छोड़ जाता है
नजर धुंधला जाता है
धुंधलके में हक
किसी का कोई दबा जाता है
बाहर ही नहीं
अंतस में भी भरा होता है, धुआँ
मारती है जिसमें
कुलांचें
ढेर सारी नाकारात्मकता
</poem>