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<poem>
कितना भी मैं मशरूफ़ रहूँ
कितना भी कर लूँ ढोंग प्रिये!
सच ये है कि हर-क्षण हर-पल
स्मृति की कारा जटिल हुई।

सारे प्रयास हैं व्यर्थ हुए
सब मारक नुस्ख़े खर्च हुए
यादों का क्या है, बाग़ी हैं
हर रोज़ बग़ावत करती हैं
मैं रोज़ काटता जंज़ीरें
ये रोज़ पहन कर बैठी हैं।

ये ज़िद्दी हैं मग़रूर भी हैं
ये साँस निगलकर जीती हैं
काली अंधियारी रातों में
अस्तित्व घोंटकर पीती हैं।

इनकी गणना के नियम अलग
ये क़ैदी हैं, आज़ाद भी हैं
ये मार कुंडली बैठी हैं
लाँघे अनंत आकाश भी हैं।

सच ये है कि कितना भी चाहूँ
आग नहीं बुझ पाती है
यादों का पानी पिया बहुत पर
प्यास नहीं बुझ पाती है
सच ये है कि कुछ काम असंभव
संभव नहीं हुआ करते
सच है जंगल के देवदार
गमलों में नहीं उगा करते।
</poem>
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