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|संग्रह=रास्ता बनकर रहा / राहुल शिवाय
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<poem>
उस दिवस अवतार के क़िस्से घटित हो जाएँगे
जब हमारे मन में भी हरि अवतरित हो जाएँगे

भूल अधिकारों को हम जब भी भ्रमित हो जाएँगे
इस हुकूमत के लिए केवल गणित हो जाएँगे

आज कल जो उड़ रहे हैं रोज़ चार्टर प्लेन से
वे चुनावी रैलियों में फिर दलित हो जाएँगे

गाँधी ने भी बात यह सोची नहीं होगी कभी
राम के इस देश में इतने पतित हो जाएँगे

देश की रग-रग में भ्रष्टाचार है अब दौड़ता
यूँ बढ़ी रफ़्तार तो चीते भी चित हो जाएँगे

इस नगर की रोशनी में, हैं अँधेरे जी रहे
आप जितना जानेंगे उतने चकित हो जाएँगे

यह ज़रूरी है नहीं हर बार होंगे हम सफल
हम विफलताओं से भी कल उत्क्रमित हो जाएँगे

लक्ष्य अपना साधकर परिवेश को बदलेंगे जब
स्वप्न आँखों के स्वयं ही अंकुरित हो जाएँगे

आँखों के इन आँसुओं को स्याही की तुम शक्ल दो
वर्ना सारे प्रेम के क़िस्से दमित हो जाएँगे
</poem>
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