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|रचनाकार=राहुल शिवाय
|अनुवादक=
|संग्रह=रास्ता बनकर रहा / राहुल शिवाय
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<poem>
वो अपने ज़िन्दगी भर की कमाई दे रहा है
शजर बूढ़ा है लेकिन पाई-पाई दे रहा है

सही है या ग़लत है यह दिखाई दे रहा है
वो अपनी बात की कितनी सफ़ाई दे रहा है

हमारे कमरे की दीवारें कल चुगली करेंगी
ज़रा धीरे कहो, उनको सुनाई दे रहा है

नशे-सा वह उतरता जा रहा है इन रगों में
उसे पूछो कि वो कैसी दवाई दे रहा है

उजाले में भी तुम उसको नहीं क्यों देख पाये
अँधेरे में भी जो मुझको दिखाई दे रहा है

जो मेरी हार की ही कामना करता रहा था
वो मेरी जीत पर आकर बधाई दे रहा है

वो इतनी दूर तक फैला हुआ है मेरे भीतर
जुदा होकर भी मुझको कब जुदाई दे रहा है

मेरे अंदर से मुझको खींच लाया है वो बाहर
वफ़ा की क़ैद से कैसी रिहाई दे रहा है
</poem>
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