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|संग्रह=रास्ता बनकर रहा / राहुल शिवाय
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<poem>
अँधेरी रात का मातम है इन उजालों में
घिरा है सूर्य यहाँ धुंध के सवालों में

नदी के रास्ते में कंकरीट क्या बोये
बदल गयी है नदी रिसते चंद छालों में

दरख़्त कट गये पर है जड़ों में जान अभी
तभी तो दिख रहा है ख़ून इन कुदालों में

गधे के सींग-से सब फूल हो गये ग़ायब
कि तुमने काँटे ही बोये थे इतने सालों में

जहाँ के लोग हैं घड़ियाल पालने वाले
वहाँ पे मछलियाँ पाओगे कैसे तालों में
</poem>
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