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<poem>
यह नदी
पग-पग महावर रच रही है
इस नदी में पाँव क्या तुमने बढ़ाए?

जन्म-जन्मों से
तृषित हर याचना को
पूर्ण तट की कामनाओं ने किया है
कौन-सा
उत्सव जगा है लहरियों में
किस तरह यह ताप मन का हर लिया है

इस हृदय का
कौन अभिनंदन करेगा
यों लगा जैसे कि तुम ही लौट आए।

तोड़ हठ लहरें
बढ़ीं मुझ ओर कैसे
क्या इन्हें पुरवाइयों ने पत्र भेजे
किस तरह
सम्पर्क में वे आ गये हैं
जो अलक्षित भाव थे हमने सहेजे

तुम कहो
संवाद के ये कुशल-कौशल
कमल-कोषों को भला किसने सिखाये?

सांझ होते
इस नदी की हर लहर सँग
नृत्य करती चाँदनी की भंगिमाएँ
रूप के सारे कथानक
भी वही हैं
हैं तुम्हारे ही सदृश सारी कलाएँ

यह रजत नूपुर पहन
इस चाँदनी ने
आस के दीपक भला क्यों जगमगाए?
</poem>
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