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<poem>
किसे कहूँ मन का सन्नाटा
दिल का दरिया कहाँ बहाऊँ
किसको समझाऊँ मैं जीवन
मुद्दा किस संसद में लाऊँ।

सब बीस हाथ से दुनिया को
जैसे बटोरने निकले हैं
सब घाट-घाट पर नदिया को
जैसे निचोड़ने निकले हैं
भावों का विनिमय कुफ़्र हुआ
सब को बस लेना होता है
छल-माया की माला में बस
इक फूल पिरोना होता है।

अब दुनिया-दुनिया क्या रोना
इस क्रन्दन से अब क्या होना
सब नज़रों की ऐयारी है
ज़िम्मेवारी किसको देना
जैसी भी है ये दुनिया है
सब कुछ दुनिया का क़िस्सा है
जितना हिस्सा सच ने पाया
झूठे का उतना हिस्सा है।
</poem>
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