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|संग्रह=धूप की लहरें / गोपीकृष्ण 'गोपेश'
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<poem>
मैं थका, थके हैं मेरे पग !

मैं देख रहा हूँ अपना घर,
उड़ता ही है जिसका छप्पर,
चुप्पी साधे, सुलझा - उलझा
कोई बैठा है चौखट पर,
उसकी आँखें मेरे पथ के
तम में कर उठती हैं जगमग !
मैं थका, थके हैं मेरे पग !

दस - पाँच क़दम की बात नहीं,
लगता है, मीलों चलना है,
तुम समझो, मैं घर पहुँच गया,
मैं समझूँ, बस, कर मलना है !
तू प्रसन्न चित्त, अधर विहँसे,
देखो, रोते हैं मेरे दृग !
मैं थका, थके हैं मेरे पग !

लो पात दबे, लो दबे फूल,
शूलों के उर में चुभे शूल,
वह मेरा घर ! यह मेरा पथ !
लाचारी मानव गया भूल,
उफ़ ! पड़ते नहीं ठिकाने पग —
डगमग - डगमग - डगमग - डगमग
मैं थका, थके हैं मेरे पग !!
</poem>
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