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|रचनाकार=अनुराधा पाटील
|अनुवादक=सुनीता डागा
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<poem>
वे देखते हैं
हमारी तरफ़
अपनी नज़रें गड़ाकर
भली-भाँति यह भाँपते हुए कि
भूख और प्यास की तरह
डर की बीमारी भी है सार्वदेशिक

हमारा अपराध इतना ही है कि
हम ढूँढ़ते हैं
अपने दो-चार सपने
उनकी आँखों में
उस पौधे की तरह, जिसके हाल ही में फूटे हों अँखुएँ
उजास के पर लिए हुए

हमारे शब्दों की दहक उन तक भी पहुँचे
इस क़वा'इद में
सरकती जाती है पैरों के नीचे की ज़मीन

कँपकँपी रोकने के कोशिश में
ठण्ड से ठिठुरे अपने हाथ
ख़िसकाए जा सकते हैं जेब में आसानी से
लेकिन पैरों का क्या होगा
यह समझ में नहीं आता

हत्या केवल शब्द नहीं होता
उनकी शब्दावली में
इशारों से
चलते हैं उनके काम
आँख के झपकाने भर से

और सद्विवेक (सत्-विवेक) केवल
एक अवधारणा होती है
आदर्श की काल्पनिक जड़ों पर
पलने-पुसनेवाली

वे डालते हैं गाय के सामने चारा
निरीहता का चोला ओढ़कर
फेंकते हैं
नाचते मोरों के सामने दाने
थपथपाते हैं भावहीनता और ठण्डेपन के साथ
पस्त हो चुके इनसानों की पीठ
बड़ी धीर-गम्भीरता से

और फिर
सहसा गायब हो जाती है
रीढ़ की हड्डी
इनसान की देह से

'''मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा'''
</poem>
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