भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनुराधा पाटील |अनुवादक=सुनीता डा...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अनुराधा पाटील
|अनुवादक=सुनीता डागा
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
‘ऐलमा पैलमा’ की धुन पर
खेल खेलती हैं लड़कियाँ
और बिना पगचाप किए
लौट जाते हैं स्वप्न
प्रेम व प्रार्थना को संग लिए
वे खो देती हैं अपने ठौर-ठिकाने
फिर रेती के घरौंदे गढ़ते हुए
दिन-ब-दिन
और भी दुश्वार होता जाता है
स्याही व क़लम का मेल
बीतते जाते समय के साथ
वे दिखाई देने लगती हैं
हूबहू अपनी मांँओं की तरह
और माँएँ
उनकी माँओं-सी
जिसकी कड़ियाँ पीछे-पीछे जाती हुई
बिला जाती हैं अन्धेरे में
एक-से साँचे में
सटीक बैठी हुई
स्त्री व ज़मीन
होती हैं अपनी जागीर
इस ठसक में रहनेवाले इस संसार में
वे बनती हैं
किसी की ख़ातिर
बेरंग मटमैली चादर
जब चाहो ओढ़ लो
न चाहो फेंक दो
बनती हैं वे
घर-आँगन, रस्सी-खूँटी
और ताकती रहती हैं चुपचाप
दर्पण की ओट में
घोंसला बुनती चिड़िया को
खदेड़े जाते हुए
पानी से अलगाये पौधों के पत्ते-सी
कुम्हलाई हुई वे फिर
बुनती हैं अदीठ कोई घोंसला
अपनी ही कल्पना की ज़मीन पर
रचाती हैं
मन-ही-मन
झूठ-मूठ का घर-घर का खेल
और रूखी आँखों से
फेर लेती हैं पीठ
बहती हवा पर ढील देकर
पतंग उड़ाने की
हर एक सम्भावना से
'''मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा'''
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=अनुराधा पाटील
|अनुवादक=सुनीता डागा
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
‘ऐलमा पैलमा’ की धुन पर
खेल खेलती हैं लड़कियाँ
और बिना पगचाप किए
लौट जाते हैं स्वप्न
प्रेम व प्रार्थना को संग लिए
वे खो देती हैं अपने ठौर-ठिकाने
फिर रेती के घरौंदे गढ़ते हुए
दिन-ब-दिन
और भी दुश्वार होता जाता है
स्याही व क़लम का मेल
बीतते जाते समय के साथ
वे दिखाई देने लगती हैं
हूबहू अपनी मांँओं की तरह
और माँएँ
उनकी माँओं-सी
जिसकी कड़ियाँ पीछे-पीछे जाती हुई
बिला जाती हैं अन्धेरे में
एक-से साँचे में
सटीक बैठी हुई
स्त्री व ज़मीन
होती हैं अपनी जागीर
इस ठसक में रहनेवाले इस संसार में
वे बनती हैं
किसी की ख़ातिर
बेरंग मटमैली चादर
जब चाहो ओढ़ लो
न चाहो फेंक दो
बनती हैं वे
घर-आँगन, रस्सी-खूँटी
और ताकती रहती हैं चुपचाप
दर्पण की ओट में
घोंसला बुनती चिड़िया को
खदेड़े जाते हुए
पानी से अलगाये पौधों के पत्ते-सी
कुम्हलाई हुई वे फिर
बुनती हैं अदीठ कोई घोंसला
अपनी ही कल्पना की ज़मीन पर
रचाती हैं
मन-ही-मन
झूठ-मूठ का घर-घर का खेल
और रूखी आँखों से
फेर लेती हैं पीठ
बहती हवा पर ढील देकर
पतंग उड़ाने की
हर एक सम्भावना से
'''मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा'''
</poem>