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Kavita Kosh से
फेंकते हैं
नाचते मोरों के सामने दाने
थपथपाते हैं भावहीनता और ठण्डेपन रूख़ेपन के साथ
पस्त हो चुके इनसानों की पीठ
बड़ी धीर-गम्भीरता से