भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
अब लगाऊँ एक शहतूत का पेड़, पर तू कुछ समझ न पाए, ज़ालिम ।
मेरी जैसी लाखों गोरियाँ, ताने हुए हैं डोरियाँ, हैं उनके बाल हिण्डोले
हँस-हँस देती गातीं लोरियाँ, पर मेरे मन में लड़ें सँपोले।
'''मूल पंजाबी से अनुवाद : अनिल जनविजय'''