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<poem>
कहीं और हो रही है मेरी प्रतीक्षा

लगता है
कहीं और हो रही है मेरी प्रतीक्षा
मैं यहाँ बैठा हूँ ।

लगता है
मैं ब्रह्माण्ड के संकेत नहीं समझता ।

पल-पल की लाश
पुल बनकर
मेरे आगे बिछ रही है
और मुझे लिए जा रही है
किसी ऐसी दिशा में
जो मेरी नहीं ।

गिर रहा है
मेरी उम्र का क्षण-क्षण
कंकड़ों की तरह
मेरे ऊपर
ढेर बन रहा बहुत ऊँचा
नीचे से सुनाई देती नहीं
ख़ुद मुझे मेरी आवाज़ ।

आधी रात में
जब कभी जागता हूँ
सुनता हूँ कायनात के स्वर
तो लगता है
बहुत बेसुरा गा रहा हूँ मैं
छोड़ दिया है मैंने सच का साथ ।

मुझे कुचलने पड़ेंगे अपने पदचिह्न
लौटाने होंगे अपने बोल
कविताओं को उलटा टाँगना होगा
घूम रहे सितारों-नक्षत्रों के बीच
घूम रहे ब्रह्माण्ड के बीच

सुनाई देती है
किसी माँ की लोरी,
लोरी से बड़ा नहीं कोई उपदेश
चूल्हे में जलती आग से नहीं बड़ी कोई
रोशनी ।

लगता है,
कहीं और हो रही है मेरी प्रतीक्षा
मैं यहाँ बैठा हूँ ।
</poem>
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