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इसी साल फ़रवरी के दूसरे पखवारे की बात है.”साहित्य आज तक’ कोलकाता में पहले दिन की आख़िरी प्रस्तुति पंजाबी के लोकप्रिय गायक जसवीर जस्सी की थी. पंजाब की सोंधी माटी की ख़ुशबू वाली अपनी दमदार आवाज़ के साथ ही 'आवो नी सैय्यों' और 'मोसे नैना मिलाइ के' जैसे गीतों से दर्शकों का दिल जीतने के बाद जस्सी ने अपने व्यवहार से भी कोलकातावासियों के दिल पर छाप छोड़ दी. हुआ यों कि अपने एक प्रशंसक को उन्होंने अपनी जैकेट केवल इसलिए दे दी कि उसने जैकेट की तारीफ़ कर दी थी. इस परफार्मेंस के बाद जस्सी जब पुरसुकून अंदाज़ में खाने की टेबल पर आए तो मस्ती के मूड में थे. उस टेबल पर आज तक के समाचार निदेशक, कई दिग्गज एंकर, ’साहित्य आज तक’ के प्रबंध संपादक आदि भी मौजूद थे. जस्सी ने बात पंजाब की माटी, लोक संगीत और सूफी संतों के बोलों से शुरू की और फिर हिन्दुस्तानी माटी के लोकप्रिय साहित्यकारों, शायरों, कवियों की चर्चा होने लगी. इस बातचीत में बाबा नानक, अमीर ख़ुसरो, बुल्ले शाह, वारिस शाह, मिर्ज़ा ग़ालिब, शिव कुमार बटालवी, अमृता प्रीतम और परवीन शाकिर आदि की चर्चा के बीच मैंने सुरजीत पातर साहब का जिक्र किया, तो जस्सी उछल पड़े.

जस्सी ने पातर साहब की लिखीं कुछ पंक्तियां तो गुनगुनाई हीं, यह बताए जाने पर इस वर्ष पातर साहब ने वादा किया है कि ’साहित्य आज तक’ दिल्ली में वे आएंगे, जस्सी ने तुरन्त कहा कि पातर साहब आएंगे, तो मैं भी आऊंगा. उनके साथ, या उनके सामने उनके गीतों, नज़्मों, कविताओं को गाने की बात ही कुछ और है... पर तब न जस्सी को, न ही मुझे, न ही पातर साहब के किसी भी चाहने वाले को उनके यों जाने का आभास था. पातर साहब के न होने की सूचना मुझे अपने प्रभारी संजीव पालीवाल के फोन से मिल, जिन्होंने किसान आंदोलन पर लिखी पातर साहब की कविता को अपनी आवाज़ दी थी, तो अचानक समझ ही नहीं आया कि क्या कहूँ. वे चाहते थे कि हम पातर साहब को अपने मंचों पर याद करें... ऐसा हुआ भी. पत्रकारीय पेशे की यह बाध्यता है कि सूचना, ख़बरें, आपकी संवेदना, भावना, लगाव और हालातों को नहीं देखतीं, उन्हें समय से आप तक पहुंचना होता है, पर अपने समय के किसी महान क़लमकार को याद करना इतना सहज है क्या? फिर वे तो सुरजीत पातर थे, जो अपनी विदाई से वर्षों पहले लिख चुके थे —

एक लफ़्ज़ विदा लिखना
एक सुलगता सफ़ा लिखना

दुखदायी है नाम तेरा
ख़ुद से जुदा लिखना
सीने में सुलगता है
यह गीत ज़रा लिखना

वरक जल जाएंगे
क़िस्सा न मिरा लिखना
सागर की लहरों पे
मेरे थल का पता लिखना

एक ज़र्द सफ़े पर
कोई हर्फ़ हरा लिखना
मरमर के बुतों को
आख़िर तो हवा लिखना.

लेखक दुष्यंत ने अभी पातर साहब के न होने पर भुबनेश्वर लिटरेचर फेस्टिवल में उनसे हुई मुलाकात का जिक्र किया है, पंजाब से इतनी दूर पंजाबी में बात शुरू होते ही वे इतने खुश हुए थे, कि जैसे ही मैंने उनके शेर का पहला मिसरा पढ़ा—
तेरे वियोग नूं किन्ना मेरा खयाल रेहा
दूसरी पंक्ति खुद पातर साहब ने पढ़ दी—
कि सारी उमर ही लग्गया कलेजे नाळ रेहा.

दुष्यंत कहते हैं, पातर हमारे समय के सिरमौर भारतीय कवियों में से एक रहे. उन्होंने सरल भाषा में लिखकर भी क्लासिक कविताएं दीं. छंदमुक्ति की आंधियों के बीच छंद में बड़ी बात कहकर वे हमेशा प्रासंगिक रहे.

पातर समकालीन पंजाबी के प्रतिनिधि कवि थे. पंजाबी माटी की सदा उनके लफ़्जों में गूंजती थी. वे एक साथ शिक्षक, शायर, कवि, गीतकार और कई अर्थों में किसान थे. वह एक साथ प्रेम, विरह, रूहानियत के साथ-साथ विद्रोह के कवि भी थे. लखनऊ में निवासरत कवयित्री कात्यायनी ने पातर साहब के न होने के बाद उनकी यह चर्चित कविता पोस्ट की —

मैं पहली पंक्ति लिखता हूं
और डर जाता हूं राजा के सिपाहियों से
पंक्ति काट देता हूं

मैं दूसरी पंक्ति लिखता हूं
और डर जाता हूं बाग़ी गुरिल्लों से
पंक्ति काट देता हूं

मैंने अपने प्राणों की ख़ातिर
अपनी हज़ारों पंक्तियों को
ऐसे ही क़त्ल किया है
उन पंक्तियों की आत्माएं
अक्सर मेरे आसपास ही रहती हैं
और मुझे कहती हैं:
कवि साहिब
कवि हैं या कविता के क़ातिल हैं आप?

सुने मुंसिफ़ बहुत इंसाफ़ के क़ातिल
बड़े धर्म के रखवाले
ख़ुद धर्म की पवित्र आत्मा को
क़त्ल करते भी सुने थे
सिर्फ़ यही सुनना बाक़ी था
कि हमारे वक़्त में ख़ौफ़ के मारे
कवि भी बन गए
कविता के हत्यारे.

हम और हमारे जैसे लोगों की मुलाकात पातर साहब की रचनाओं से बड़ी कच्ची उम्र में ही हो गई थी. पंजाबी आती नहीं थी, पर जैसे कि रूसी, उर्दू, अंग्रेजी साहित्य हिंदी में अनुवाद के रास्ते घुस रहा था, वैसे ही पंजाबी साहित्य से बुल्ले शाह, वारिस शाह, अमृता प्रीतम, गुरुदयाल सिंह, शिवकुमार बटालवी और पाश के साथ-साथ पातर साहब भी हम तक पहुंच चुके थे. मुझे अब भी याद है, वर्ष 2019 में ’साहित्य आज तक’ में भारतीय भाषाओं से जुड़े सत्र के सिलसिले में पंजाबी भाषा के सत्र के अतिथि वक्ताओं का चयन करने में पातर साहब ने कितनी मदद की थी. वे स्वयं भी इस कार्यक्रम में आते पर उसी दौरान चंडीगढ़ में स्वयं उनकी अध्यक्षता में कला- साहित्य के कार्यक्रम के चलते यह संभव नहीं हो सका. अगले दो साल कोरोना की भेंट चढ़ गए.”साहित्य आज तक’ हुआ ही नहीं. कोविड काल के बाद जब फिर”साहित्य आज तक’ शुरू हुआ तो पातर साहब की तबियत ठीक नहीं थी... लेकिन किसान आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी कविता 'ये मेला है' के उपयोग के लिए सहर्ष स्वीकृति दी थी. इस कविता का अनुवाद पंजाबी हिंदी के विद्वान परमानंद शास्त्री ने की थी.

सच है, पंजाब और पंजाबी साहित्य पर जब भी हमें जरूरत पड़ती पातर साहब हमेशा उपलब्ध रहते थे. अचरज होता है कि वे देखने में कितने कोमल, मृदु और हरदम मुस्कान से भरे होते थे, पर जैसे ही कविता के गहन भावों में उतरते, व्यवस्था, शोषण और अपने समय पर आक्रोश से भर उठते. अब इसी कविता की चंद पंक्तियां देखिए —

मेरे शब्दों
चलो छुट्टी करो, घर जाओ
शब्दकोशों में लौट जाओ

नारों में
भाषणों में
या बयानों में मिलकर
जाओ, कर लो लीडरी की नौकरी

गर अभी भी बची है कोई नमी
तो मांओं , बहनों व बेटियों के
क्रन्दनों में मिलकर
उनके नयनों में डूबकर
जाओ ख़ुदक़ुशी कर लो

गर बहुत ही तंग हो
तो और पीछे लौट जाओ
फिर से चीखें, चिंघाड़ें, ललकारें बनो...

पातर साहब ने 'कला, कलाकार और कला शास्त्र' के रिश्ते पर कभी लिखा था —

'कविता ने मनुष्य जीवन के संघर्षों की कहानी बहुत कलात्मक ढंग से प्रस्तुत की है, ऐसे हमारे पास बहुत से नाम हैं हर भाषा में, हर देश में. असल में उन्हीं को इतिहास ने महान कहा है, माना है जिनके शब्दों में साधारण व्यक्ति के संघर्षों ने अभिव्यक्ति पाई है. कवि ने उन सोये शब्दों को जगाया होगा, न मिला होगा तो पैदा किया होगा, कभी तिलस्म से काबू किया होगा, कभी शब्द खुद भी खिंचे आये होंगे पंक्ति में सजने, कौन जाने!' उनके ये विचार उनके जीवन का आदर्श भी थे और उनका अपना यथार्थ भी. तभी तो उन्होंने लिखा था —

मेरे दिल में कोई दुआ करे
यह ज़मीन हो सुरमई
यह दरख़्त हों हरे भरे
सब परिन्दे ही
यहाँ से उड़ गए...

***

मैं सुनूँ जो रात ख़ामोश को
कि मिट्टी से मुझे प्यार नहीं
गर मैं कहूँ कि आज यह तपती है
गर कहूँ कि पैर जलते हैं
वह भी लेखक हैं तपती रेत पे जो
रोज़ लिखते हैं हर्फ़ चापों के
वह भी पाठक हैं सर्द रात में जो
तारों की किताब पढ़ते हैं...

(सुरजीत पातर : पंजाब और पंजाबियत की आवाज़)

पातर साहब के लिए शब्द कभी भी रूमान भर नहीं थे. प्रेम में भी विरह उनका मूल स्वर था. अभी रेडियो के जानेमाने उद्घोषक युनूस खान ने पातर साहब की लेखनी के जादू, सरोकार और उसूल की बात करते हुए एक पोस्ट लिखी और उनका एक वीडियो, इन शब्दों के साथ शेयर किया. "यहां एक वीडियो पोस्ट कर रहा हूं जिसमें सुरजीत पातर की एक अद्भुत कविता को पंजाबी के नामी गायक मनमोहन वारिस गा रहे हैं. दिलचस्प ये है कि उनका कंसर्ट इसी गीत से शुरू हो रहा है, और जनता का रिस्पॉन्स देखिए. यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि यह आयोजन ऑस्ट्रेलिया में हो रहा है. पंजाबी की ये शानदार पहुँच और अपने कवि से उनका जुड़ाव देखकर आंख भर आई. युनूस ने जो वीडियो पोस्ट किया, पंजाबी में जिसके बोल थे —

चल पातर हुण ढूंडण चलीए भुलीआं होईआं थांवां
किथे किथे छड आए हां अणलिखीआं कवितावां
गडी चड़्हन दी काहल बड़ी सी की कुझ रहि गिआ ओथे
पलां छिणां विच छड आए सां जुगां जुगां दीआं थांवां
अधी रात होएगी मेरे पिंड उते इस वेले
जागदीआं होवणगीआं सुतिआं पुतरां लागे मांवां
मारूथल 'चों भज आइआ मैं आपणे पैर बचा के
पर ओथे रहि गईआं जो सन मेरी खातर राहवां...

जिसका हिन्दी अर्थ कुछ यों है —

आइए अब उन भूली हुई जगहों को खोजें
हमने अलिखित कविताएँ कहाँ छोड़ दी हैं ?
गाड़ी में चढ़ने की होड़ मची थी, कुछ रह तो नहीं गया ?
ज़माने के ठिकाने लम्हों में छूट गए
मेरे गाँव में अभी आधी रात होगी
माताएँ अपने सोते हुए पुत्रों के पास जागेंगी
मैं रेगिस्तान से पैर बचाकर भागा
लेकिन मेरी ख़ातिर अभी भी रास्ते बाक़ी थे...

कहते हैं अनुवाद कितना भी अच्छा क्यों न हो, कवि के मूल भाव को कैसे उजागर करे, वह भी जब कवि जब सुरजीत पातर जैसी शख्सियत हो. पातर माटी के साथ-साथ जन के कवि भी थे. उनमें साहस भी था, तो प्रयोगधर्मिता भी. अपनी जनता से उनके कनेक्ट का आलम यह था कि चुनाव के बीच भी जैसे ही पातर साहब के न होने की सूचना आई, पंजाब के सियासत की दूरियां मिट सी गईं. लंबे अरसे बाद पंजाब के राजनेताओं ने सियासी मतभेदों से इतर, अपनी माटी के सपूत को वह मान दिया, जिसका वह हकदार था.

वह मुझको राग से वैराग तक जानता है
मेरी आवाज़ का रंग भी पहचानता है
जरा सिसकी जो लूं तो कांप जाता है
अभी वह सिर्फ मेरी हंसी को पहचानता है
मेरा मेहरम मेरे इतिहास की हर छाप जाने
मेरा मालिक सिर्फ जुगराफिया ही जानता है
उसको कह दो के किसी भी मिट्टी में उग के खिल जाये
वह यों ही खाक क्यों रास्तों की दिन भर छानता है...

पातर सृजन की दुनिया में कहीं गहरे तक धँसे थे. वे शानदार कवि के साथ उम्दा गायक भी थे. लय में अपनी कविता पाठ से वह सीधे दिलों में उतरते थे. विश्व साहित्य की भी उनमें समझ थी. वे एक अच्छे अनुवादक भी थे. शहीद ऊधम सिंह के जीवन पर बनी एक फिल्म के लिए संवाद लिखने के साथ-साथ विश्व साहित्य से पातर ने फेडेरिको गार्सिया लोर्का की तीन त्रासदियों, गिरीश कर्नाड के नाटक 'नागमंडला' और बर्टोल्ट ब्रेख्त और पाब्लो नेरुदा की कविताओं का पंजाबी में अनुवाद भी किया. दूरदर्शन के लिए 'सूरज दा सरनावां' नामक कार्यक्रम के तहत पातर ने बाबा फरीद से लेकर शिव कुमार बटालवी तक पर तीस एपिसोड तैयार किए थे. पंजाब कला परिषद के अध्यक्ष तो वह थे ही, वे पंजाबी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष भी रहे. पातर साहब केवल पंजाब, पंजाबी और पंजाबियत के ही नहीं समूचे हिंदुस्तान और कई अर्थों में वर्तमान में विश्व कविता की नुमाइंदगी कर रहे थे. वे लिखते हैं —

अल्पसंख्यक नहीं
मैं दुनिया के बहुमत से वास्ता रखता हूँ
बहुमत
जो उदास है
खामोश है
प्यासा है इतने चश्मो के बावजूद...

उनका जन्म जालंधर जिले के पातर गांव में 14 जनवरी, 1945 हुआ था. वहां से निकलकर वे कपूरथला पहुंचे. वहां के रणधीर कॉलेज से स्नातक किया. इसके बाद पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला से स्नातकोत्तर और फिर गुरु नानक देव विश्वविद्यालय से 'गुरु नानक वाणी में लोककथाओं के परिवर्तन' विषय पर शोध किया. वे लुधियाना में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय से पंजाबी के प्रोफेसर के रूप में सेवानिवृत्त हुए. पातर की कविताओं में हमारे समय के मनुष्य ने, उसकी इच्छा, आकांक्षा और संघर्षों, बहुत सी भावनाओं ने वाणी पायी है. उन्होंने हमारे समय के आम मनुष्य की, चाहे वह किसान हो या मजदूर के कहे-अनकहे अहसासात को कविता का रूप दिया. वह केवल इन्हीं के नहीं बल्कि उन कवियों की वाणी को भी स्वर दे रहे थे, जो लिखना चाह कर भी लिख नहीं पाती थी. चाहे शब्दों की कमी समझिए या साहस की, पर पातर इन सबसे बेपरवाह थे. उनके शब्दों में —

इतिहास तो हर पीढ़ी लिखेगी
बार-बार पेश होंगे
मर चुके
जीवितों की अदालत में
बार-बार उठाए जाएंगे क़ब्रों से कंकाल
हार पहनाने के लिए
कभी फूलों के
कभी कांटों के
समय की कोई अंतिम अदालत नहीं
और इतिहास आख़िरी बार कभी नहीं लिखा जाता...

पातर साहब की कविता में जीवन के दुःखों की, माटी की पीड़ा को एक आवाज मिलती थी. उनकी कृतियों में 'हवा विच लिखे हर्फ', 'हनेरे विच सुलगदी वरनमाला', 'पतझर दी पाजेब', 'लफजान दी दरगाह' और 'सुरजमीन' ने काफी चर्चा बटोरी. 'अँधेरे में सुलगती वर्णमाला' के लिए उन्हें 1993 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार तो 'लफ़्ज़ों की दरगाह' के लिए 2009 में सरस्वती सम्मान मिला था. वे पद्मश्री से भी सम्मानित थे. पर पातर की नजर में सबसे बड़ा सम्मान वारिस शाह अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार था, जो अमृता प्रीतम के बाद उन्हें मिला था. यह पातर की लोकप्रियता ही थी की उनकी अंतिम यात्रा के दिन लुधियाना में न केवल चुनाव प्रचार रुक गया बल्कि राज्य के मुख्यमंत्री भगवंत मान खुद अपार भीड़ और प्रशंसकों के बीच कंधा देने के लिए उपस्थित थे. पंजाब कांग्रेस प्रमुख अमरिंदर सिंह राजा वारिंग ने पंजाबी साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति बताते हुए कहा कि पातर ने पंजाबी भाषा की सेवा की और इसे विश्व मानचित्र पर चमकाया. पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता अमरिन्दर सिंह ने एक्स पर लिखा — 'एक युग का अंत, प्रसिद्ध पंजाबी लेखक और कवि पद्मश्री सुरजीत पातर का निधन हो गया. उनके परिवार और दुनियाभर में लाखों प्रशंसकों के प्रति मेरी हार्दिक संवेदना.' शिरोमणि अकाली दल के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि पातर के निधन से साहित्य की दुनिया में एक ख़ालीपन आ गया है. बादल ने कहा कि शिव बटालवी के बाद पातर साहिब पंजाबियों के सबसे प्रिय कवि थे.


जयंत सिंह ने 'अंधेरे बीच सुलगती वर्णमाला' करार देते हुए सुरजीत पातर के साथ अपनी मुलाकातों को याद करते हुए लिखा है कि- "वे जितने अच्छे कवि थे उससे भी अधिक आकर्षक उनके कलाम की सस्वर प्रस्तुति होती थी. कुछ वैसी ही जैसी उर्दू में वसीम बरेलवी की. लोक और शास्त्र दोनों में उनकी समान रूप से स्वीकार्यता, आवाजाही और सम्मान रहा. लगभग पंद्रह साल पहले लुधियाना के कृषि विश्वविद्यालय में सुरजीत पातर को साक्षात सुनने का अवसर मिला था. उनकी आवाज़ और कलाम को पेश करने का अंदाज़ ही कुछ ऐसा था कि सुनने वाले की आंखें डबडबा जायें. उनकी रचनाओं का अच्छा अनुवाद चमनलाल जी ने किया है. लेकिन कितना भी अच्छा अनुवाद हो कवि की आत्मा के निकट नहीं पहुंचता. भाव, छंद और बिम्ब का सुघड़ संयोजन तो उसी भाषा में सम्भव है जिसमें कवि सपने देखता है.

लुधियाना के कृषि विश्वविद्यालय में सुरजीत पातर ने जो रचना सुनाई थी उसकी पंक्तियों की अब भी धुंधली सी याद बाक़ी है —

'हुंदा सी इत्थे शख्स इक वो किधर गया
पत्थरां दा शहर बिच शीशा बिखर गया.'

पटियाला, अमृतसर होते हुए सुरजीत पातर साहित्य के अध्यापक के रूप में लुधियाना पहुँचे थे. गुरु नानक देव की वाणी में लोकतत्व के वे मर्मज्ञ थे. उनकी रचनाओं के सस्वर पाठ को अगर आप सुनेंगे तो पाएँगे कि मनुष्य का दर्द बारीक़ दानों की शक्ल में यत्र - तत्र बिखरा हुआ है. पाँच नदियों के जिस भौगोलिक प्रान्त से कलाविद एम०एस० रंधावा को प्यार था, सुरजीत पातर को भी यहां की नदी, पहाड़, जंगल और मैदान से रहा. सुरजीत पातर के जाने से आज झेलम, सतलज, रावी, व्यास और चिनाब के पानी में भी शोक की लहर उमड़ी है.

पातर साहब अब नहीं हैं, फ़ोन पर उनसे बातें भी नहीं होंगी. पर उनके जैसे रचनाकार कहीं जाते नहीं हैं. रहते हैं अपने शब्दों और कृतियों के साथ हमारे-आपके बीच. इसीलिए अलविदा नहीं कहूंगा सुरजीत पातर साहब. आपकी ही कविता की ये पंक्तियां उधार लेता हूँ —

मिली अग्न में अग्न, जल में जल, हवा में हवा
कि बिछड़े सारे मिले, मैं अभी उड़ान में हूं
छुपा के रखता हूं मैं तुझसे ताज़ी नज्में
कहीं तुम जान के रो न दो, मैं किस जहान में हूं... सादर नमन पातर साहब.

( पातर साहब की कविताओं के अनुवाद चमनलाल, मोनिका कुमार के सौजन्य से)
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