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|रचनाकार=ईप्सिता षडंगी
|अनुवादक=हरेकृष्ण दास
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<poem>
सपने सब सच हो रहे थे
गोद में माँ ।

आहिस्ता आहिस्ता
जवां होने लगी में
सपने भी होते गए भारी।
तो उन्हें कैद करना पड़ा
बक्से में एक
आधा बुना स्वेटर सा
या एक टेडी की तरह
आधा बना।

बंध गया में जब
एक खंभे से जा कर
दूसरे खंबे में-
तो मैं सोची
सच्चा सुख मिले ना सही
सपनों के साथ जीना
निराला भी तो है।
उस बक्से को ले आई मैं इधर
मेरी नई केद खाने पर।
निहारे और खुश हुए-
सब।
मगर कोई बोला- मेरे कमरे में फिर किसी ने बोला-
मेरे अलमारी में
तो और किसी ने कहा-
मेरे दिल में
जगह ही नहीं थोड़ा सा भी कहीं।
सपनों को दिशा दिखा दी गई
सही जगह उनके।
अब मेरी कहानी कैद होकर रह गई है
इस बंद बक्सा में ।
बक्से में मेरे साथ
सिकुड़ी हुए हैं मेरे सपने
पड़े हैं धूल से भरी
किसी कोने में कहीं।

'''ओड़िआ से अनुवाद : हरेकृष्ण दास'''
</poem>
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