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{{KKRachna
|रचनाकार=हरभजन सिंह
|अनुवादक=गगन गिल
|संग्रह=जंगल में झील जागती / हरभजन सिंह / गगन गिल
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
अन्धेरे में से मुझे आवाज़ आई है
अन्धेरे में से अभी एक धड़ खड्गधारी निकला है
अपना सिर काटकर ख़ुद आ रहा है ?
या नई कोई योनि बेसिर है ?
इसका तन आवाज़ बेमुँहीं
जो मेरी आँखों में झाँक नहीं सकती
जो मेरी आत्मा में बिना इजाज़त बैठ गई है
आत्मा के दर नहीं ? दीवार नहीं ?
इस जगह मेहमान बे-दस्तक, बिना अधिकार
आकर बैठ जाते हैं ?
मैं अपने जिस्म में नंगा, विशुद्ध आनन्द, बैठा था
इसने मुझे तन लपेटने तक की भी फ़ुर्सत नहीं दी
मेरी नग्नता में एक दीया जलाकर रख दिया है
मैं अपनी रोशनी में सहमा
निर्वाक् बैठा हूँ
कोई कन्या जैसे सपने में
पराया बाल जन कर काँप उठी हो !
अन्धेरे में से मुझे आवाज़ आई है
अन्धेरे में से अभी एक धड़ खड्गधारी निकला है ।
'''पंजाबी से अनुवाद : गगन गिल'''
</poem>
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|रचनाकार=हरभजन सिंह
|अनुवादक=गगन गिल
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<poem>
अन्धेरे में से मुझे आवाज़ आई है
अन्धेरे में से अभी एक धड़ खड्गधारी निकला है
अपना सिर काटकर ख़ुद आ रहा है ?
या नई कोई योनि बेसिर है ?
इसका तन आवाज़ बेमुँहीं
जो मेरी आँखों में झाँक नहीं सकती
जो मेरी आत्मा में बिना इजाज़त बैठ गई है
आत्मा के दर नहीं ? दीवार नहीं ?
इस जगह मेहमान बे-दस्तक, बिना अधिकार
आकर बैठ जाते हैं ?
मैं अपने जिस्म में नंगा, विशुद्ध आनन्द, बैठा था
इसने मुझे तन लपेटने तक की भी फ़ुर्सत नहीं दी
मेरी नग्नता में एक दीया जलाकर रख दिया है
मैं अपनी रोशनी में सहमा
निर्वाक् बैठा हूँ
कोई कन्या जैसे सपने में
पराया बाल जन कर काँप उठी हो !
अन्धेरे में से मुझे आवाज़ आई है
अन्धेरे में से अभी एक धड़ खड्गधारी निकला है ।
'''पंजाबी से अनुवाद : गगन गिल'''
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