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<poem>
पाँव जड़ गए जब मैंने देखा हल चलते
पुरखों की उस छाती पर जिसको मैंने ही
इसी हाथ से बेचा था फिर बना अगेही
सरस्वती के लिए; फूल चाँदी के खिलते

कीना । सोचा था वर मिलते ही भर दूँगा
किन्तु पितृघाती की हत्या लगी धजा ले
रिक्त हस्त मैं देख रहा; बधिकों के पाले
पड़ी हुई तू । ’तुम्हें मुक्त ही मैं देखूँगा’

यही कहा था । याद आ रहा पिता का कहा :
’पुरखों’ का यह डीह जलाना यहाँ तू दीया
यदि विदेश में भी होंगे तो कहेगा हिया :
’ठाँव पाँव रखने को तो है !’ अब कहाँ रहा !

टाट भारती ने उलटा : अब बोलो जैसा
कृषिविज्ञान उगाए किस मिट्टी में पैसा !
</poem>
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